वायु द्वारा निर्मित स्थलाकृति (Landformas made by Wind) : – वायु द्वारा निर्मित स्थलाकृति जिसमें वातगर्त, छत्रक या गारा, ज्यूजेन, यारडांग, पाषाण जालक,इन्सेलबर्ग, ड्रीकांटर, भू-स्तम्भ, बालू का स्तूप, बारखन, लोयस मैदान, वायु द्वारा निर्मित स्थलाकृति या बहुत ही महत्वपूर्ण अपरदन के अन्य कारकों के समान पवन भी अपरदन तथा निक्षेपण का एक प्रमुख कारक है l मरुस्थलीय इलाकों में दृश्यभूमि के निर्माण का कार्य मुख्यतः पवन करती है। पृथ्वी के समस्त क्षेत्रफल का लगभग 1/3 भाग मरुस्थलीय है। अर्धशुष्क तथा मरुस्थलीय भागों मे वायु अपरदन का एक सक्रिय कारक होती हैl इन मरुस्थलीय भागों में जल की कमी के कारण मिट्टी के कण परस्पर बँध नहीं पाते और वनस्तति के आवरण का भी अभाव होता है। परिणामस्वरूप दूर-दूर तक बालू की विशाल राशियाँ फैल जाती हैं। बालू के विस्तृत क्षेत्रों के ऊपर बहने वाली पवनें बालू के कणों को उड़ाकर ले जाते हैं और जहाँ कहीं उसकी गति मन्द होती है वहीं उन्हें निक्षेपित कर देती है। नदी की भांति वायु भी अपनी अपरदन तथा निक्षेप क्रिया द्वारा विभिन्न प्रकार की भू-आकृतियों का निर्माण करती है।
वायु द्वारा निर्मित निम्नलिखित स्थलाकृतियों का निर्माण होता है :
1. वातगर्त (Blow-outs):
वनस्पति-विहीन क्षेत्रों में तीव्र के वेग से चलती हुई वायु में भँवरें उत्पन्न हो जाती हैंl और धरातल पर बिछी हुई कोमल तथा असंगठित शैल को अपने साथ उड़ा ले जाती हैं।इन ग्रतो की गहराई की अंतिम सीमा भौम जलस्तर द्वारा निर्धारित होती है l फलस्वरूप वहाँ एक तश्तरी जैसी आकृति बन जाती है जिसे वातगर्त कहते हैं। धीरे-धीरे इन वातगर्तों के का आकार बढ़ता जाता है। सहारा के रेगिस्तान, कालाहारी,मंगोलिया के शुष्क भागों में पाए जाते है वातगर्त मुख्यतः संयुक्त राज्य अमेरिका के नेब्रास्का तथा कोलोरेडो राज्यों में पाए जाते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के वायोमिंग राज्य में बिग हॉलो (Big Hollow) लगभग 14 किमी0 लम्बा, 8 किमी0 चौड़ा और 100 मीटर गहरा है। इसके सम्बन्ध में अनुमान लगाया गया है कि यह पवन द्वारा 10 अरब टन रेत तथा धूल के अपवाहित करने से बना है। इजिप्त का कतारा इसी का उदा है
2. छत्रक या गारा (Mushroom or Gara):
पवन द्वारा अपरदित शैल के हल्के तथा बारीक कण अधिक ऊँचाई तक उठाए जाते हैं तथा भारी व बड़े कण धरातल के साथ घसीटे जाते हैं। बड़े कण छोटे कणों की अपेक्षा अधिक कटाव करते हैं। इससे मरुभूमियों में खड़ी चट्टान का अपरदन निचले भाग में अधिक तथा ऊपरी भाग में कम होता है। इस प्रकार एक छतरीनुमा आकृति बन जाती है जिसे छत्रक कहते हैं (चित्र 1.79)। अरबी भाषा में इसे गारा के नाम से पुकारा जाता है। सहारा मरुस्थल में इसे हमाड़ा कहते हैं। राजस्थान में जोधपुर के निकट अलग-अलग स्थित ग्रेनाइट के चट्टानी खंड नीचे से कट रहे हैं और उनका रूप छत्रक जैसा हो गया है।
3. ज्यूजन –
धरातल पर जब कोमल चट्टान के ऊपर कठोर चट्टान क्षेतिज दिशा में बिछी हुई होती है तो अपक्षय के कारण ऊपरी कठोर चट्टान में दरारें पड़ जाती हैं। पवन की अपरदन क्रिया से ये दरारें धीरे-धीरे बढ़ती जाती हैं और नीचे की कोमल चट्टान को वायु उड़ा ले जाती है। इस प्रकार कोमल चट्टान के ऊपर कठोर चट्टान मेज की भाँति दिखाई देने लगती हैं जिसे ज्यूजन कहते हैं
4. यारडांग –
जब कठोर तथा कोमल चट्टानें लम्बवत् दिशा में एक-दूसरे के समानान्तर खड़ी हों तो वायु कोमल चट्टानों का अपरदन कर देती है और कठोर चट्टानें नुकीले स्तम्भों के रूप में खड़ी रहती हैं। इन्हें यारडांग कहते हैं
5. पाषाण जालक –
जब वायु के मार्ग में कोई ऐसी शैल रचना आती है जिसमें शैलों की कठोरता क्षैतिज तथा लाम्बिक दोनों दिशाओं में एकान्तर क्रम में हो तो वायु अपने अपघर्षण से कोमल शैल का अपरदन कर देती है और कठोर चट्टान वैसी-की-वैसी ही रह जाती है। इससे चट्टान में एक जाली सी बन जाती है, जिसे पाषाण जालक कहते हैं। रॉकी पर्वत पर अनेक पाषाण जालक मिलते हैं।
6. इन्सेलबर्ग –
मरुस्थलीय भागों में कई बार कोमल चट्टान के प्रदेश में कठोर चट्टान भी होती है। यह कठोर चट्टान कोमल चट्टान के अपरदन के बाद भी यत्र-तत्र टीलों के रूप में खड़ी रहती है। दूर से देखने से ये विशाल मरुस्थल रूपी समुद्र में द्वीपों जैसे प्रतीत होते हैं। जर्मनी के भूगोलवेत्ता कालाहारी मरुस्थल में उत्पन्न हुए ऐसे टीलों को ‘इन्सेलबर्ग’ कहने लगे जिसका अर्थ है ‘द्वीप-दृश्य’। कालान्तर में सभी मरुस्थलों के इस प्रकार बने टीलों को इन्सेलबर्ग के नाम से पुकारा जाने लगा। इन्सेलबर्गों की आकृति शैल संरचना पर निर्भर करती है। ग्रेनाइट से बने इन्सेलबर्ग गुम्बदाकार होते हैं और उत्तरी नाइजीरिया में पाए जाते हैं (चित्र 1.82)। अल्जीरिया में लाल बलुआ पत्थर की चट्टानों से बने इन्सेलबर्गों की आकृति खम्बों जैसी होती हैं।
7. ड्रीकांटर –
प्रायः मरुस्थलों में अपक्षय के कारण विशाल शैल खंड टूट जाते हैं और पर्वतीय ढलानों से लुढ़क कर नीचे गिर जाते है। पवन इन पत्थर के टुकड़ों को घिसाकर मुलायम कर देती है। इन्हें ड्रीकांटर कहते हैं। इनके तीन या चार पार्श्व होते हैं (चित्र 1.83)। अल्जीरिया तथा लीबिया में इनकी प्रचुरता है।
8. भू-स्तम्भ या डिमोइसल-
मरुस्थल में यदि कोई कठोर चट्टान पड़ी है तो अपरदन कार्य उसके आस-पास तो होता रहता है परन्तु उसके नीचे की चट्टान सुरक्षित रहती है। पर्याप्त अपरदन हो जाने के बाद नीचे की सुरक्षित चट्टान एक स्तम्भ के रूप में खड़ी रहती है जिसके ऊपर इसे बचाने वाली कठोर चट्टान पड़ी रहती है। ऐसी आकृति को भू-स्तम्भ या डिमोइसल कहते हैं (चित्र 1.84)।
पवन का निक्षेप कार्य
जब पवन की गति मन्द पड़ जाती है तो वह अपने साथ उड़ाई हुई रेत, मिट्टी आदि का निक्षेप शुरू कर देती है। वायु की निक्षेप क्रिया से निम्नलिखित स्थलाकृतियाँ बनती है
बालू का स्तूप –
मरुस्थली क्षेत्रों में वायु की निक्षेप क्रिया द्वारा निर्मित स्थलाकृतियों में सबसे प्रसिद्ध बालू के टीले हैं। ये कटक और छोटी पहाड़ियों के रूप में पाए जाते हैं। वायु की गति मन्द होने पर जरा-सा अवरोध भी वायु को निक्षेप करने पर बाध्य कर देता है। यह अवरोध कोई झाड़ी, जमीन का उठा हुआ भाग, चट्टानी खंड, कोई आड़, मकान या ऊँट का अस्थि-पंजर हो सकता है। वायु की दिशा में इनका ढाल साधारण तथा विपरीत दिशा में इनका ढाल तीव्र होता है। इनकी ऊँचाई सामान्यतः एक या दो मीटर से लेकर 150 मीटर तक होती है। कुछ मरुस्थलों में इनकी ऊँचाई 300 मीटर तक होती है। थार मरुस्थल में इनकी ऊँचाई 15 मीटर से 65 मीटर, सहारा मरुस्थल में 180 मीटर तक तथा कोलोरेडो में 300 मीटर तक होती है। ये टीले 3 किमी0 से 150 किमी0 तक लम्बे होते हैं।
बालू के टीलों का आगे खिसकना : वनस्पतिहीन होने की अवस्था में बालू का टीला धीरे-धीरे पवन की प्रवाह दिशा में आगे खिसकता रहता है। इसका कारण यह है कि टीले की पवनमुखी साधारण ढाल (Windward Slope) से पवन बालू को उड़ाकर प्र पवन विमुख तीव्र ढाल (Leeward Slope) पर जमा कर देती है। इस प्रकार टीले के एक ढाल की बालू दूसरे ढाल पर पहुँच जाती है और सम्पूर्ण टीला वायु की दिशा में आगे खिसक जाता है। चित्र स 1.85 में ‘क’ टीले की वास्तविक स्थिति है परन्तु धीरे-धीरे खिसकने के बाद यह ‘ख’ स्थिति में आ गया है। इनके खिसकाव की गति 5 मीटर से 30 मीटर प्रति वर्ष होती है। कभी-कभी अपने खिसकाव की प्रक्रिया में यह अपने रास्ते में वनों, चरागाहों तथा बस्तियों को भी बालू के नीचे दबा देता है। कुछ समय बाद जब ये टीले और आगे बढ़ जाते हैं तो दबाए हुए मृत वनों और बस्तियों के खंडहर ए फिर से उस बालू के नीचे से निकल आते हैं। शुष्क काल में खिसकते ( हुए इन बालू के टीलों का आक्रमण राजस्थान के मरुस्थल में तथा उसके इर्द-गिर्द वाले क्षेत्रों में देखा गया है। यदि इनके मन्द ढालों उ पर तेजी से उगने वाली और गहरी जड़ों वाली झाड़ियाँ लगा दी जाएँ
तो इन बालू के टीलों के खिसकाव को रोका जा सकता है।
2. बारखन-
बारखन एक विशेष आकृति वाला बालू का टीला होता है जिसका अग्रभाग अर्धचन्द्राकार होता है और उसके दोनों छोरों पर आगे की ओर एक-एक सींग जैसी आकृति निकली रहती है। आगे वाली पवनविमुख ढाल तीव्र होती है। इसके विपरीत पवनाविमुख ढाल उत्तल और मन्द होती है। बारखन एक तुर्की शब्द है जिसका अर्थ होता है किरखिज स्टेपिज में बालू की पहाड़ी। चूँकि इस टीले के दोनों छोर मध्य भाग की अपेक्षा तेजी
से आगे बढ़ते हैं, इसलिए इसका यह विचित्र आकार बन जाता है। मों लगातार एक ही दिशा में पवन के बहते रहने से और सीमित मात्रा बों में बालू की आपूर्ति होने से बारखन बनते हैं। इनकी ऊँचाई 30 मीटर च तक हो सकती है। साधारण बालू के टीलों की भाँति ये भी आगे ई की ओर खिसकते रहते हैं।
बारखन
3. लोयस (Loess): यह जर्मन भाषा का शब्द है, जो ■ बहुत बारीक कणों की सम्बद्ध, चूर्णशील, सूक्ष्मरन्ध्री और पीले रंग ■ की धूल के लिए प्रयोग किया जाता है। पवन द्वारा उड़ाकर लाई ■ हुई धूल ही निक्षेपित होने के बाद लोयस कहलाती है इसका नाम फ्रांस के एलसास (Alsace) प्रान्त के एक कस्बे लोयस के नाम । पर रखा गया है क्योंकि इस लोयस कस्बे के समीप ही इस प्रकार के धूल के निपक्षेप सर्वप्रथम देखे गए थे। लोयस का निर्माण मरुस्थलों ■ से दूरस्थ क्षेत्रों में होता है। वायु मिट्टी के बारीक कणों को सैकड़ों किलोमीटर दूर उड़ाकर ले जाती है और गति कम होने पर उसका ■ किसी अन्य स्थान पर निक्षेप कर देती है। लोयस मिट्टी के कण ■ इतने महीन होते हैं कि इनमें परतें नहीं मिलतीं बल्कि संकुचन के ■ कारण उर्ध्वाधर समतलों में टूटने की प्रवृति होती है। लोयस की – रासायनिक संरचना में फैल्सपार, अभ्रक, क्वार्टज्, फैल्साइट, सिलिका, – एल्यूमीनियम आदि खनिज सम्मिलित होते हैं जिन पर ऑक्सीकरण ■ (Oxidation) की क्रिया के कारण इसका रंग पीला हो जाता है। ■ पवन द्वारा निक्षेपित लोयस के जमाव समुद्र-तल से 1600 मीटर की ■ ऊँचाई पर पाए जाते हैं।
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