पेंक का अपरदन चक्र सिद्धांत

पेंक का अपरदन चक्र सिद्धांत 1924 में प्रस्तुत कियाl जिसे ‘मार्कोलाजिकल सिस्टम’ या ‘मार्कोलाजिकल एनालिसिस’ के नाम से जाना जाता है। पेंक के मॉडल का मुख्य उद्देश्य बहिर्जीत प्रक्रमों तथा आकृतिक विशेषताओं के आधार पर धरातलीय संचलन के विकास एवं उसके कारणों की कल्पना करना था। दूसरे शब्दों में पेंक स्थलरूपों की विशेषताओं की व्याख्या के आधार पर किसी भी प्रदेश के विवर्तनिक इतिहास की व्याख्या करना चाहते थे। पेंक के मॉडल का प्रमुख सन्दर्भ तंत्र यह है कि किसी भी क्षेत्र में स्थलरूपों की विशेषतायें वहाँ की विवर्तनिक घटनाओं से सम्बन्धित होती हैं, अतः क्षेत्र विशेष की स्थलाकृतिक उत्थान से पूर्व स्थलखण्ड के लिए पेंक ने प्राइमारम्प नामावली का प्रयोग किया है। यह स्थलखण्ड आकृतिविहीन समतलप्राय धरातलीय भाग को प्रदर्शित करता है। पेंक के अनुसार ‘स्थलरूप संरचना, प्रक्रम तथा अवस्था का प्रतिफल न होकर उत्थान की दर तथा अपरदन एवं पदार्थों के विस्थापन की दर के बीच अनुपात का प्रतिफल होता है’। स्थलरूपों के विकास में समय की कोई भूमिका नहीं होती है।

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पेंक का अपरदन चक्र सिद्धांत

विशेषताओं के आधार पर उस क्षेत्र में विवर्तनिक संचलन के विकास एवं उसके कारणों की व्याख्या की जा सकती है। – स्थलरूपों का विकास समय-आधारित न होकर समय-स्वतंत्र होता है। किसी क्षेत्र विशेष में स्थलरूपों की विशेषताएँ, इस प्रकार, अन्तर्जात बलों की तीव्रता एवं पदार्थों के बहिर्जात प्रक्रमों द्वारा विस्थापन (अपरदन तथा परिवहन) के अनुपात की परिचायक होती हैं।

ज्ञातव्य है कि पेंक विश्व के सबसे अधिक गलत समझे गये (misunderstood) भूआकृतिक विज्ञानवेत्ता हैं क्योंकि दुरूह जर्मन भाषा में इनके विचारों के प्रकाशन के कारण पेंक के भ्वाकृतिक विचारों को सही ढंग से नहीं समझा जा सका है, परिणामस्वरूप कई भ्रान्तियाँ उत्पन्न हो गयी हैं। अभी तक यह भी निश्चय नहीं हो सका है कि पेंक ने अपने भ्वाकृतिक सिद्धान्त में ‘चक्र’ शब्द का प्रयोग किया है या नहीं।

पेंक ने अपने सिद्धान्त में सम्भवतः डेविस की चक्रीय संकल्पना को नजरअन्दाज करने के लिए जानबूझकर ‘अवस्था संकल्पना’ का प्रयोग नहीं किया है। ‘अवस्था’ के स्थान पर पेंक ने ‘इंट्विकलुंग’ नामावली का प्रयोग किया है जिसका तात्पर्य होता है विकास। इस तरह पेंक ने तरुण, प्रौढ़ तथा जीर्ण अवस्थाओं के स्थान पर क्रमशः आफस्तीजिडे इंट्विकलुंग  बढ़ती दर से विकास), ग्लीखफर्मिग इंट्विकलुंग – समान दर से विकास) एवं अब्स्तीजिंडे इंट्विकलुंग घटती दर से विकास नामावलियों का प्रयोग किया है। स्थलरूपों का विकास प्राइमसम्प में उत्थान के साथ प्रारम्भ होता है। प्राइमारम्प का उत्थान विभिन्न दरों में सम्पादित होता है।

प्रारम्भ में उत्थान मन्द गति से होता है तथा इस उत्थान की अवधि लम्बी होती है। इसके बाद त्वरित गति से तथा बाद में समान दर से उत्थान होता है। अन्त में घटती दर से उत्थान होता है, और अन्ततः उत्थान समाप्त हो जाता है। इस दौरान स्थलरूपों का विकास निम्न प्रावस्थाओं से होकर गुजरता है

(i) वर्द्धमान की प्रावस्था / भू-आकृति विकास की दर –

जैसा ऊपर कहा जा चुका है कि अन्तर्जात बलों के कारण धरातल ऊपर उठता है, प्रारम्भ में धीमी गति से किन्तु कुछ समय पश्चात् उत्थापन की दर में वृद्धि हो जाती है। इस अवस्था में उत्थान के कारण और प्रणाल में प्रवणता और प्रवाह की गति में वृद्धि के परिणामस्वरूप जलधारायें अपनी अवखनन की दर में वृद्धि के कारण अपनी घाटी को नीचा करती रहती हैं। घाटी को गहरा करने की गति की अपेक्षा उत्थान की दर अधिक होने के परिणामस्वरूप गहरी और संकड़ी V आकार की घाटी और खड्‌ड (Gorges) बनते हैं। क्योंकि घाटी को गहरा करने को गति भूखण्ड के उत्थापन के साथ नहीं चल पाती है अतः निरपेक्ष ऊँचाई निरन्तर बढ़ती रहती है। दूसरे शब्दों में विभाजक शिखर की ऊँचाई के साथ ही साथ घाटी तलो बढ़ती रहती है क्योंकि उत्थापन की दर लम्बवत् अपरदन की दर से कहीं अधिक होती है। इस अवस्था में अधिकतम ऊँचाई और अधिकतम उच्चावच  बढ़ता है।

(ii) स्थलरूपों के समान विकास की अवस्था –

उत्थापन और निम्नीकरण के आधार पर इस अवस्था को तीन उप-अवस्थाओं में विभाजित किया जा सकता है-

  1. इस उप-अवस्था की विशिष्टता अभी भी उत्थान की त्वरित दर होती है। निरपेक्ष ऊँचाई निरन्तर बढ़ती रहती है, क्योंकि अपरदन की दर अभी भी उत्थापन की दर से कम होती है। अधिकतम ऊँचाई प्राप्त हो जाती है, किन्तु आपेक्षिक उच्चावच निरन्तर वही रहता है क्योंकि घाटी के गहरे होने की दर शिखर विभाजक के नीचे करने की दर के बराबर रहती है। घाटी पार्श्व ढालू होते हैं। इस अवस्था को एक समान विकास की अवस्था भी कहते हैं क्योंकि घाटी के गहरे होने की दर और विभाजक शिखर के नीचे होने की दर एक समान होती है।
  2. इस उप-अवस्था में ऊँचाई न तो बढ़ती है और न घटती है। यह अपरदन की दर उत्थापन सुमेलन के कारण है। घाटी के पार्श्व अभी भी सीधे होते हैं। इस अवस्था की विशिष्टता निरन्तर निरपेक्ष और आपेक्षिक उच्चावच होती है। दूसरे शब्दों में यह स्थलरूपों के समान विकास की अवस्था है।
  3. इस उप-अवस्था में उत्थापन पूर्ण रूप से रुक जाता है। निरपेक्ष उच्चावच में कमी आना प्रारम्भ हो जाता है। आपेक्षिक उच्चावच घाटी तली एक सा रहता है, क्योंकि विभाजक शिखर के नीचे होने की दर घाटी के गहरे करने की दर के समान रहती है। यह प्रक्रिया भूखण्डों के समान विकास की ओर बढ़ती है।

(iii) भूदृश्यों के क्षीयमान विकास की अवस्था

यह अवस्था बढ़ती हुई अपरदन प्रक्रिया के प्रभुत्व की है। पाश्विक अपरदन नगण्य हो जाता है घाटी के गहरे होने की प्रक्रिया भी धीमी हो जाती है और घाटी चौड़ी होती जाती है। इस अवस्था की भूखण्डों के उत्तरोत्तर क्षय के रूप में पहचान की जाती है। निरपेक्ष और सापेक्ष उच्चावच दोनों नीचे हो जाते हैं। घाटी पार्श्व ढाल के दो भाग होते हैं सबसे ऊपर का भाग अपना ढाल कोण बनाये रखता है जिसे गुरुत्व ढाल कहा जाता है। दूसरा घाटी का निचला भाग जिसे मंद ढाल कहा जाता है, जो निम्न ढाल, घाटी पार्श्व के आधार पर टालुस पदार्थों से बना होता है। इस अवस्था की विकसित अवस्था की विशेषता इनसेलबर्ग और नतोदर मन्द ढाल होते हैं। इस प्रकार के विस्तृत धरातल अन्त में बनते हैं जिन्हें एन्ड्रम्फ कहा जाता है जिसे समप्राय मैदान के समकक्ष माना जा सकता है। पेंक का अपरदन चक्र सिद्धांत बहुत ही महत्वपूर्ण है

 

वायु द्वारा निर्मित स्थलाकृति 

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